हिंदी साहित्य में किन्नर या थर्ड-जेंडर समुदाय को लेकर बहुत कम लिखा गया है| किन्नर-जीवन पर हिंदी साहित्य में आत्म-कथाओं या ऐसे किसी साहित्य का अभाव है| ‘मैं पायल’ हिंदी का पहला जीवनीपरक उपन्यास है, जिसे यथार्थ जीवन में किन्नर गुरु पायल सिंह ने जिया है| एक किन्नर शिशु के बचपन से लेकर उसके जीवन के तमाम पक्षों को इस उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है| भारत समेत पूरी दुनिया में किन्नरों की संख्या लाखों में है, लेकिन फिर भी साहित्य, समाज, भाषा, संस्कृति, संविधान, सत्ता, सम्पत्ति और जीवन जीने के तमाम अधिकारों से उन्हें सदियों से बेदखल किया जाता रहा है| रोजगार और शिक्षा का आभाव है, जिसके कारण उन्हें सार्वजानिक स्थलों पर भीख मांगनी पड़ती है, तालियाँ पीटकर नेग वसूलने होते हैं| इससे भी जरूरत पूरी न हो तो ‘वेश्यावृत्ति’के ग़लीज दलदल में उतर जाना होता है| सार्वजनिक स्थलों पर उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है| सामान्य लोगों के लिए बने अस्पतालों में उन्हें इलाज़ नहीं मिलता, स्कूलों में दाखिला नहीं मिलता, सरकारी-ग़ैरसरकारी जगहों पर रोजगार नहीं मिलता| हम उन्हें अश्लीलता की दृष्टि से देखने के आदी हैं| बचपन में ही परिवार और समाज से विस्थापित होकर नर्क भोगते लाखों किन्नरों का प्रतिनिधित्व करती है यह कृति।
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